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Type: Article
Created By: Bk Ganapati
Title: Krishna & Sudama
Unique Id: 171228124123 Create Time: 2017-12-28 23:41:23 Update Time: 28-12-2017 23:41:23 Category: Religion, Ethics , Spirituality & New Age Subcategory: Sudama Summary: Krishna & Sudama
Table of Content of This Article
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1 Image Krishna & Sudama
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Details ( Page:- Krishna & Sudama )
"सुदामा! मैं तुम्हारा सखा हूं भगवान नहीं, तुम्हारा कान्हा हूं।   किसने तुम्हारे मन में मेरे भगवान होने का वहम डाला है ?" सुदामा से अन्न की पोटली छीनकर अन्न के दाने खाते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने सखा सुदामा को मित्रता के प्रति आश्वस्त किया।
"कान्हा! मेरी पत्नी ने चलते समय कहा था। सखा के लिए उपहार लेते जाओ। तुम्हारा सखा भगवान है। दीनों का नाथ है दुख भंजक है।" "बस... बस... बस... अब और नहीं। मैं तुम्हारा वही बालसखा कान्हा हूं। बाल मित्र हूं।भूल गए कैसे बिताई थी जंगल में वह रात। कितने अच्छे थे गुरुकुल के दिन।"
 "लेकिन कान्हा... ब्राह्मण द्रोण भी तो महाराज द्रुपद के सहपाठी हैं न। द्रुपद ने तो भरी राजसभा में द्रोण को पहचाना ही नहीं, दुत्कार भी दिया।" "सुदामा! मैं तुम्हारे कहने का अर्थ समझ नहीं सका, पूरी बात बताओ क्या हुआ द्रोण के साथ ?" 
  श्रीकृष्ण ने अनजान बनकर पूछा। "कान्हा! तुम तो द्रुपद और द्रोण दोनों को ही जानते हो। उन दोनों सहपाठियों के बीच एक घटना घटी। दोनों ही महर्षि भरद्वाज के आश्रम में रहकर विद्या अध्ययन किया करते थे। मुनि पुत्र द्रोण से राजपुत्र द्रुपद की गाढ़ी मित्रता हो गई। दीक्षा के उपरांत विदा लेते हुए राजपुत्र द्रुपद ने मुनि पुत्र द्रोण को वचन दिया- मित्र मेरे देश आना। मैं तुम्हें सम्मानित करूंगा। अपना कुलगुरु बनाऊंगा।"
द्रोणाचार्य अत्यंत स्वाभिमानी थे। वह तो एक दिन अपनी पत्नी कृपी के बार-बार कहने पर द्रुपद के यहां जाने को विवश हो गए। माता- पिता स्वयं कठोर कष्टों को भोग सकते हैं लेकिन संतान पर पड़ती धूप की तीखी किरण भी उन्हें संतप्त कर देती है। अश्वत्थामा का दूध के लिए बिलखना उनसे असह्य हो गया।
चंद्रसेन महाराज की मृत्यु के पश्चात राजकुमार द्रुपद सिंहासनारूढ़ हो चुके थे। द्रोण जब राजकुमार से मिलने पहुंचे तो उन्होंने भरी सभा में द्रोण को पहचानना अस्वीकार करते हुए कहा, “राजा और याचक की मित्रता कैसीमैं तो तुम्हें जानता तक नहीं। मैंने कभी कोई वचन तुम्हें नहीं दिया।" कान्हा
द्रोण घायल शेर की भांति क्रोध से उन्मत्त होकर रह गए। लौटकर पाण्डु और कौरव पुत्रों को शिक्षा देने पर नियुक्ति के लिए पितामह भीष्म के पास गए। उन्हें मन-वांछित फल मिल गया।
श्रीकृष्ण ने अनजान बनकर पूरी कथा सुनने के बाद कहा, "मित्र सुदामा! तुमने वह श्लोक पढ़ा है - 'मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे-अर्थात हमें संसार को मित्र-दृष्टि से देखना चाहिए। मित्र-दृष्टि और द्वेष-दृष्टि में भेद होता है। मित्र- दृष्टि में प्रेम होता है। प्रेम जोड़ता है। द्वेष तोड़ता है और द्वेष से प्रतिहिंसा की अग्नि प्रज्वलित होती है। प्रतिहिंसा सर्वनाश की जननी है। और सुदामा! द्रोण लोभवश गए थे। मांगने गए थे। 
उनसे तुम अपनी तुलना क्यों करते हो। तुम मित्र हो, सखा हो, कुछ देने आए हो। तुमने उपहार का अन्न दिया। मैंने खा लिया। तुमने कुछ मांगा ही नहीं। यही तो मित्रभाव है। यही तो सखा भाव है।"
"कान्हा! मैंने कहा , मेरी पत्नी ने कहा है कि सखा परमेश्वर होता है। तुम परमेश्वर जैसे ही लगते हो। तुम द्वारिकाधीश हो। तुमने मुझ अकिंचन के चरण पखारे। मुझे गले से लगाया। यह सब आचरण करुणा सागर का है। दया निधान का है, भगवान का है।"
श्रीकृष्ण जोर-जोर से हंसे। बार-बार सुदामा को गले से लगाया। कहा, "विवाह के समय तुम दोनों पति-पत्नी ने विवाह यज्ञ कुण्ड के सात फेरे लगाकर कहा था, ' सखा भव' अब हम दोनों 'सखा' हूए, अर्थात सखा परमेश्वर होता है- 'पति परमेश्वर', हम और तुम भी सखा
हैं न। 
तो तुम मेरे परमेश्वर, मैं तुम्हारा परमेश्वर।" श्रीकृष्ण ने हंसी-हंसी में 'भक्त का गूढ़ रहस्य कह दिया।' सुदामा ने कुछ नहीं मांगा। गांव लौट चले। रास्ते भर सोचते रहे, 'श्रीकृष्ण, द्रुपद और द्रोण।' एक ओर श्रीकृष्ण का ईश्वरोचित व्यवहार तो दूसरी ओर द्रुपद का अहंकार। तीसरी ओर द्रोण के हृदय की प्रतिहिंसा ज्वाला! सचमुच ही याचक मांगने वाला दीन ही होता है। स्वयं नारायण को भी महाराज बलि के समक्ष 'वामन रूप' धारण करना पड़ा था। द्रोण की प्रतिहिंसा की अग्नि में कितने ही मान- अपमान, उत्थान-पतन हुए। द्रोण के प्रिय शिष्य अर्जुन ने महाराज द्रुपद को पराजित कर बंदी बनाकर उनके समक्ष उपस्थित किया। राजा द्रुपद के पुत्र धृष्टद्युम्न ने महाभारत युद्ध में द्रोण का सिर काटकर बदला लिया। द्रोण पुत्र अश्वत्थामा ने  धृष्टद्युम्न को मारकर पितृ-ऋण चुकाया। श्रीकृष्ण ने ठीक ही कहा था, 'प्रतिहिंसा ही विनाश की जननी होती है। द्वेष- दृष्टि सर्वनाश का मूल है।
सुदामा गांव पहुंच गए। कान्हा के प्रताप से झोंपड़ी के स्थान पर महल खड़ा था। सुदामा ने गांव वालों से पूछताछ की। कृष्ण की लीला का बोध हुआ। सहमते-सहमते महल में प्रवेश किया। पत्नी ने भव्य स्वागत करते हुए कहा, "कहा था , कान्हा दीनबंधु परमेश्वर हैं। तुम्हारा 'सखा' परमेश्वर है।" सुदामा ने भौचक्का  होकर सबकुछ देखा। 
आंखों से अश्रु प्रवाहित हो रहे थे। सामने श्रीहरि नारायण विष्णु की प्रतिमा थी। मंत्र उच्चारण करते हुए श्रीचरणों में गिर पड़े। "हे सहस्त्रों मस्तक, सहस्त्रो नेत्रों और सहस्त्रों चरणों वाले परम पुरुष! संपूर्ण ब्रह्माण्ड में व्यापक होते हुए भी उससे परे परम पुरुष! तुझे मेरा कोटि-कोटि प्रणाम।" सुदामा ने ध्यानस्थ अवस्था में भगवान विष्णु की प्रतिमा में अपने बालसखा कान्हा का स्वरूप निरखा। 
कान्हा कह रहा था- 'सखे! मानव तब ही मानव होता है, जब वह प्रेम को मैत्री-दृष्टि से ग्रहण करता है। मित्र-दृष्टि का प्रेम ही जीवन का उत्स है, पथ है और गंतव्य है, सखे।'

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